Abstract

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शिक्षा-शास्त्र में ‘जेण्डर‘ सम्बन्धी पाठ्यक्रम की प्रासंगिकता

Author : डॉ. वन्दना शर्मा

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प्रत्येक समाज ईश्वर की अनुपम कृति स्त्री एवं पुरूष नामक दो भिन्न लिंग के व्यक्तियों से निर्मित होता है। यह भिन्न लिंग के व्यक्ति अपनी जन्मजात और वातावरणीय कारकों के साथ विविध विशेषताओं से युक्त होकर विकसित होते है। किन्तु यह सत्य है कि सामाजिक ढ़ाँचा ही स्त्री और पुरूष के लिए अलग-अलग भूमिकाएँ निर्धारित करता है। स्त्री और पुरूष का आचरण, स्वभाविक अन्तर की अपेक्षा सामाजिक सांस्कृतिक अपेक्षाओं से अधिक निर्धारित होता है। सामाजिक लिंग भेद महिला और पुरूष के बीच का अन्तर दिखाता है किन्तु यह अन्तर प्राकृतिक नहीं है। महिला और पुरूष के बीच जो शारीरिक भिन्नता है वह जैवकीय है। ‘जेण्डर‘ शब्द इस बात की ओर संकेत करता है कि जैविक भेद के अतिरिक्त जितने भी भेद दिखते है, वे प्राकृतिक न होकर समाज द्वारा निर्मित हैं और इसी से यह स्पष्ट होता है कि अगर यह भेद बनाया हुआ है तो दूर भी किया जा सकता है। समाज में स्त्रियों के साथ होने वाले भेद के पीछे पूरी सामाजीकरण की प्रक्रिया है, जिसके तहत बाल्यावस्था से ही बालक-बालिका का अलग-अलग ढंग से पालन-पोषण किया जाता है।