Abstract

Abstract

लोक कलाओं के संरक्षण और संवर्धन में महिलाओं की भूमिका (अवध क्षेत्र के विशेष संदर्भ में)

Author : डाॅ. वर्षा रानी

Abstract

‘लोक’ से तात्पर्य उस मानव समूह से है, जो सामाजिक सभ्यता के बंधनों से उन्मुक्त, स्वतंत्र, स्वाभाविक जीवन यापन करता है। लोक अर्थात लोग, सामान्य जन। ऐसे लोक द्वारा स्वाभाविक एवं प्राकृतिक, कृत्रिम या मशीनीकृत उपकरणों से भिन्न निर्मित या उत्पन्न कलाओं को लोक कला की संज्ञा दी जाती है। ये लोक कलाएं पारंपरिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी अपने मौलिक रूप में आगे बढ़ती जाती हैं। इन लोक कलाओं का संवर्धन समुदाय विशेष की अभिरुचि और अपनत्व के साथ सहज गति से होता रहता है। वस्तुतः लोक कलाएं जनमानस की सहज भावाभिव्यक्तियां हैं जो चित्रकला, वास्तुकला, शिल्पकला आदि मूर्त और नृत्य, गीत, संगीत, कथा आदि अमूर्त रूपों में लोक में बिना किसी शास्त्रीय ज्ञान कौशल या सिद्धान्तों की अपेक्षा के जनमानस में व्याप्त रहती हैं। यदि लोक का व्यापक अर्थ ग्रहण किया जाय, तो यह समस्त प्रत्यक्ष जगत ‘लोक’ है। इस लोक की निर्मात्री है प्रकृति जो स्त्री स्वरूपा है। वस्तुतः स्त्री जननी के रूप में जीव जगत की सर्वोत्तम कृति मानव को जन्म देती है, उसका संस्कार करती है, उसे कलात्मकता प्रदान करती है। अस्तु स्त्रियां स्वभावतः कलाप्रिय होती हैं। यदि स्त्रियों को लोक कलाओं की जन्मदात्री कहा जाय तो अतिशयोक्ति न होगी। वे जीवनदायिनी भी हैं और सृजनात्मक भी। इसीलिए कलात्मकता उनमें स्वभावतः विद्यमान है।